मध्य प्रदेश के जिला सतना स्थित मैहर मां शारदा माई के इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक है। जो मैहर देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं। पहले मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग यही पुरानी हजार सीढ़ियां तय करनी पड़ती थी। वैसे अब रोपवे की सुविधा भी उपलब्ध है, सीढियां भी सुगम हो गई हैं, जिससे सुगमता से दर्शन किया जा सकता है।
बहुत पुरानी है मंदिर की कहानी
इस मंदिर की उत्पत्ति के पीछे एक बहुत ही प्राचीन कहानी है जिसके अनुसार सम्राट दक्ष की पुत्री सती, भगवान शिव से शादी करना चाहती थीं परंतु राजा दक्ष इसके खिलाफ थे। एक बार राजा दक्ष ने एक यज्ञ किया। इस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन जान-बूझकर उन्होंने भगवान महादेव को नहीं बुलाया। महादेव की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत दुखी हुईं और यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता से भगवान शिव को आमंत्रित न करने का कारण पूछा, इस पर दक्ष ने भगवान शिव के बारे में अपशब्द कहा, तब इस अपमान से पीड़ित होकर सती मौन होकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ गईं और योग द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया, जब शिवजी को इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया और यज्ञ का नाश हो गया। तब भगवान शंकर ने माता सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे।भगवान विष्णु ने सती के शरीर को 52 हिस्सों में विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के शव के अंग और आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्ति पीठों का निर्माण हुआ। उन्हीं में से एक शक्ति पीठ है मैहर देवी मंदिर, जहां मां सती का हार गिरा था। मैहर का मतलब है, मां का हार, इसीलिये इस स्थल का नाम मैहर पड़ा। अगले जन्म में सती ने हिमाचल राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति के रूप में प्राप्त किया।
लेकिन इस तीर्थस्थल के बारे में एक और दूसरी रोचक दन्तकथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि मंदिर के लिए मैहर राजा को आया सपना।
बताते हैं कि मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जुदेव नाम के राजा शासन करते थे। उन्हीं के राज्य का एक चरवाहा गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा रहता था। कई तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहीं से आ गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई। दूसरे दिन जब वह चरवाहा इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया, तो देखा कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर चर रही है। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी तब उसके पीछे-पीछे वह भी जाएगा। गाय का पीछा करते हुए उसने देखा कि वह पहाड़ी की चोटी में स्थित गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। वह वहीं द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर कें बाद द्वार खुला। लेकिन उसे वहां एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब चरवाहे ने उस बूढ़ी महिला से कहा, 'माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ दे दों। मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूं।' बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस चरवाहे को दिए और कहा, 'अब तू इस जंगल में अकेले न आया कर।' वह बोला, 'माता मेरा तो काम ही जंगल में गाय चराना है, लेकिन आप इस जंगल में अकेली रहती हैं? आपको डर नहीं लगता।' तो बूढ़ी माता ने उस चरवाहे से हंसकर कहा- बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं, मैं यहीं निवास करती हूं इतना कह कर वह चली गईं।चरवाहे ने घर आकर जौ के दाने वाली गठरी खोली, तो हैरान हो गया। उसमें जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे। उसने सोचा- मैं इसका क्या करूंगा। सुबह होते ही राजा के दरबार में हाजिर होऊंगा और उन्हें आप बीती सुनाऊंगा। दूसरे दिन दरबार में वह चरवाहा अपनी फरियाद लेकर पहुंचा और राजा के सामने पूरी आप बीती सुनाई, उस चरवाहे की कहानी सुनकर राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का कहकर, अपने महल में सोने चला गया। रात में राजा को ख्वाब में चरवाहे द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि यह आदि शक्ति मां शारदा हैं। स्वपन में माता ने महाराजा को वहां मूर्ति स्थापित करने का आदेश दिया और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होगी। सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कार्य करवा दिए। शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैलने लगी। माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु कोसों दूरे से आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना भी पूरी होने लग। इसके बाद माता के भक्तों ने मां शारदा का विशाल मंदिर बनवा दिया।
इस धार्मिक स्थल के सन्दर्भ में एक अन्य प्रमुख दन्तकथा भी प्रचलित है। वह है "आल्हा-ऊदल की कहानी"
परंपरा के मुताबिक दो वीर भाई आल्हा और ऊदल जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध लड़ा था, वो भी शारदा माता के भक्त हुआ करते थे। इन्हीं दोनों ने सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में बारह सालों तक घोर तपस्या कर मां शारदा माता को प्रसन्न किया। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था।
जय माता दी बोलो शारदा माई की जय
शिखा सोनी जिला ब्यूरो न्यूज एसीपी इंडिया