धरतीपुत्र किसान अपनी धरती माॅ को विषकन्या न बनायेे आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
धरतीपुत्र किसान अपनी धरती माॅ को विषकन्या न बनायेे आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार                       होशंगाबाद धरती माॅ है जो अखिल विश्व की सृष्टि का आधार है। धरती माॅ सकल विश्व का भरण करने वाली, धन को धारण करन वाली गृहरूपा है, उसकी कोख से हीरा, पन्ना, मोती, सोना, चान्दी, लोहा आदि पैदा होते है। उसके वक्ष स्थल पर पर्वत,पेड़,सागर, सरोवर, नदियाॅ, महल और मकान है जिसकी गोद में हम खेलते कूदते है। धरती माॅ सम्पत्तिस्वरूपा है, विश्वम्भरा है तभी धन सम्पत्ति का उपार्जन कर विश्व के देशों को समृद्ध किये हुये है। धरती माॅे समस्त प्राणियों को अन्न देती है इसलिये विश्व के प्राणीमात्र का भरण करने वाली है इसलिये कहा जा सकता है कि जीवन की गति और आकर्षण इस धरती माॅ के कारण है। यह शस्य श्यामला धरती माॅ जिसे हम भारत माॅ कहकर गर्वित होते है, उसका सुन्दर स्वरूप हमें गाॅवों में देखने को मिलता है। भारतमाॅ के पैरों को गंगा-जमुना पॅखारती है, श्याम जलधर जिसके केशांें को धोते है और हिमालय से आने वाली, कमल इस धरती माॅ के चरण है सागर इसकी  करधनी है, उस धरती की संतान प्राणीमात्र है वही उसका सच्चा सुपुत्र किसान माना गया है जो हरपल धरती मैया से जुड़ा रहकर एक बीज उसकी कोख में बोता है और हजारों बीज पैदा कर इस सृष्टि के प्राणीमात्र को अन्न उपलब्ध कराता है। आज धरती मैईया का पुत्र यही किसान लालची हो गया है धरती मैईया की कोख से पैदा होने वाले अनाज को कईगुना पाने की होड़ में खेतों की मिट्टी को दूषित और जहरीली बना चुका है। उसकी प्रतिस्पर्धा अब धरती मैया को विषकन्या बनाने की ओर अग्रसर है जिसके लिये वह रासायनिक खादों और कीटनाशक का इस्तेमाल कर भूल गया है कि इससे उत्पन्न होने वाली फसल भी जहरीली होगी और जो व्यक्ति ऐसे अन्न को ग्रहण करेगा उसके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने के साथ वह शने-शने कई घातक बीमारियों से ग्रसित होकर अकाल मौत की ओर बढ़ेगा। कुछ ही साल हुये है जब किसान भूमिपुत्र से भस्मासुर कर अपनी पैतृक परम्परा में मिली खेती और खेतों में उपयोग आने वाले जैविक खाद को भूलकर विकसित और विकासशील बनने के लिये अपने खेत की भूमि की उर्वरा शक्ति को नष्ट करने के लिये पहले नरवाई में आग लगाकर मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट करता है और खेतों में मौजूद कीटों के शत्रु जीव-जन्तुओं को जिंदा जला चुका है तथा ज्यादा उपज के चक्कर में अपने खेतों में रासायनिक खादों पर विश्वास करने लगा है जिससे यह धरती माॅ उसके लालच का शिकार होकर विषैले अन्न का उत्पाद करके विषकन्या बनती जा रही है जिसे रोकने हेतु सरकार के प्रयास नाकाफी है। देश के हर प्रान्त में प्रायः तीन चार दशकों से जो रासायनिक उर्वरकों कीटनाशकों का इस्तेमाल खेती में हो रहा है उससे भी तेजी से फसलों की उत्पादन लागत का खर्चा बढ़ रहा है। आधुनकिता के नाम पर खेतों की मिट्टी, पौधों और पशुओं को अधिकाधिक रासायनिक उत्पाद देने से जहाॅ मिट्टी की उत्पादन क्षमता कम हुई है वहीं रासायनिक प्रयोगों से पैदा हुये अनाज को खाने से लोगों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा है और लोग कई बीमारियों के शिकार होकर चिकित्सकों की शरण में पहुॅचने को विवश है। लोग समझ नहीं पा रहे है कि उनकी बीमारी का क्या कारण है, जबकि यह सब उसके भोजन में परौसे जा रहे इस रासायनिक खाद की देन है जिसे स्वयं वैज्ञानिक स्वीकार कर चुके हैं। अगर देश के नागरिक इस तथ्य से वाकिफ हो तो उनके समक्ष दो विकल्प होंगे, पहला कि वे इस जहरीले रासायनिक उत्पाद से पैदा अनाज को खाकर शरीर को रोगगस्त कर ले या भूख से तड़फकर मर जाये। धरती पुत्र किसान इस बात को भूल गया है कि उसकी गलती लोगों के लिये कितनी घातक है, जबकि देखा जाये तो आज भी भी देश में ऐसे सैकड़ों किसान मिल जायेंगे जो सफलता के मुकाम पर है और यह सफलता उन्हें जैविक खेती से पारम्परिक गाय-भैस के गोबर एवं जानवरों के मल से बनी खाद का इस्तेमाल करने से मिली है और इन किसानों ने रासायनिक पदार्थो का प्रयोग किये बिना लोगों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालीन पड़ने वाले प्रभाव से उन्हें मुक्त रखा है तथा अच्छी किस्म की अनाज की बैरायटी को पैदा करके वे वास्तविक धरती पुत्र बने हुये है। रासायनिक पदार्थो से खेती करने से होने वाले परिणामों को किसान को समझना होगा कि इससे कैंसर जैसे गंभीर रोग पैदा होते है, अनेक लोग शारीरिक रूप से अपंग होते है, अनेक के शरीर के अंग निष्क्रिय होने से उनका जीवन नारकीय हो जाता है। किसान को चाहिये कि वह धरती माॅ के साथ भी अन्याय न करें और न ही उन मासूम लोगों पर अन्याय करें जो उनपर पूरा विश्वास करके अनाज-सब्जी खरीदकर खाते है।मध्यप्रदेश में पिछले दो-तीन दशकों से रासायनिक उर्वरकों , कीटनाशकों के उत्पाद पर नजर डाली जाये तो कई चैकाने वाले परिणाम देखने को मिलेंगे इसमें तेजी से इनका उपयोग हुआ है। यह चैकाने वाली बात है कि इन रासायनिक पदार्थो को किसानों तक पहुॅचाने के लिये मध्यप्रदेश में मार्कफेड ने 19 सितम्बर 1956 को 4 लाख 65 हजार रूपये से शुरूआत की थी वह संस्था वर्ष 2018 में 16767.77 करोड़ रूपये का व्यवसाय कर चुकी है। वर्ष 2007-08 से लगायत 2019 तक के मार्कफेड के आॅकड़े देखे जाये तो जहाॅ वर्ष -2007-08 में 28.93 लाख टन, वर्ष 2008-09 में 31.21 लाख टन, वर्ष 2009-10में 36.12 लाख टन, वर्ष-2010-11 में दुगना 65.61 लाख टन, वर्ष 2015-16 में 70.97 लाख टन वहीं वर्ष 2017-18 में 74.32 लाख टन रासायनिक खाद किसानों को बेच चुकी है और इस रासायनिक खाद के आॅकड़े प्रतिवर्ष बढ़ते क्रम में है। इसी प्रकार देखें तो कीटनाशकों की बिक्री  का रिकार्ड वर्ष 2007-08 में 19.35 करोड़, वर्ष 2008ऋ09 में 25.41 करोड़, वर्ष 2009-10 में 32.39 करोड़, वर्ष 2010-11 में 42.75 करोड़, वर्ष 2011-12 में 73.82 करोड़, वर्ष-2014-15 में 71.98 करोड़ सहित हर वर्ष कीटनाशकों की रिकार्ड खरीदी किसानों ने करके खेतों में कीटाणु को मारने के लिये उपयोेग कर फसलों को विषेैला बनाने का काम किया है। किसानों के द्वारा रिकार्ड रासायनिक पदार्थ और कीटनाशक का इस्तेमाल से दिनों दिन पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है जिसमें जहाॅ किसानों को अपने खेतों की मिटटी से उपजाऊपन की चिंता रही वही वह भूल गया कि उसकी यह भूल कितनी घातक है। जब से धरती है तब से आज तक लाखों वर्ष हो गये वह खादान्न देना नहीं भूली है लेकिन पिछले तीन-चार दशक ऐसे हो गये तो एक अपवाद है जिसमें किसानों ने धरती का प्राकृति उपजाऊपन का स्वरूप छीनकर उसे विषकन्या बनाने के लिये रसायनों का इस्तेमाल हर साल बढ़ाने का क्रम नहीं तोड़ा है।
आज आवश्यक हो गया है कि देश के प्रत्येक किसान को विषैले रासानिक पदार्थो का इस्तेमाल खेती में करने से बचना होगा। भारत में रासायनिक पदार्थो को बेचकर यहाॅ की भूमि को अनुपजाऊ किये जाने के मर्म को समझना होगा जो रासायनिक उत्पाद बैचने वाली विदेशी कम्पनियाॅ एक षड़यंत्र के तहत यह सब कर रही है और पूरे देश से अरबों रूपये अपनी अंटी में कर रही है। जब किसान अपने खेतों में यह रासायनिक पदार्थ का इस्तेमाल करता है तो उसे मानवीय आधार पर विचारना होगा कि उसके द्वारा अपने खेत से असॅख्य लाभकारी और महत्वपूर्ण सूक्ष्मजीवों का विनाश कर प्रकृति के संतुलन को बिगाडने में अपने आप को झौक दिया है। हम जो प्रकृति में बदलाव देख रहे है जिसमें कभी अल्पवर्षा से नुकसानी, अत्यधिक वर्षा से बर्बादी जैसे लक्षण है वे इन रसायनिक पदार्थो से धरती माॅ की कौख के अपमान से भी संभव है, धरती माॅ ऐसे ही अपना अपमान किये जाने पर उल्टी मार मारने से नहीं चूकती है। किसान भूल जाता है कि उसके द्वारा अपने खेतों में जो रासायनिक पदार्थ डाला है वह वर्षाकाल में बहकर नदियों में पहुॅचता है, जिस जमीन से होकर यह रासायनिक पदार्थ घुलकर जाता है और गाॅवों-शहरों में जमा होता है वह पेयजल में पहुॅचकर, पेयजल को भी जहरीला बनाता है। यह निश्चित है आज नहीं तो कल खेतों में दिये जा रहे रसायनों का असर धरती में गहरे तक जहाॅ पानी है वहाॅ पहुॅचेगा तो यह रासायनिक उर्वरक खतरनाक बम की तरह असर करेगा जिससे पर्यावरण पूरी तरह तहस नहस तो होगा ही वहीं पीने का पानी विस्फोटक जहरीला होगा जो किसी महायुद्ध के दुष्प्ररिणामों जैसा परिणाम आने वाली पीढ़ी को भुगतने के लिये पर्याप्त होगा। यह इसलिये भी संभव होता दिखता है कि वैज्ञानिक एवं पर्यावरण विज्ञानी स्वीकारते है कि इन रासायनिक उर्वकरों और कीटनाशक जहर के कारण उथले भूमिगत जल में नाईट्रेट के उच्च स्तर होना पाया जा चुका है। नाईट्रेटों के इन उच्च स्तरों से पानी का बचाव किये जाने के लिये एक ही कार्य संभव है और वह है किसानों द्वारा आज से ही इन रासायनिक उर्वरकांेे-कीटाणुनाशक जहर के प्रयोग पर रोक लगने के साथ हमारे पूर्वजों द्वारा उपयोग किये जाने वाली खेती प्रणाली का अपनाना शुरू किया जाये।  खेतों में रासायनिक-कीटनाशक पदार्थो को लेकर पर्यावरण को प्रदूषित किये जाने पर यह नहीं भूलना चाहिये कि यह मनुष्य के लिये ही नुकसानदेह है, बल्कि इससे खेतों के आसपास की वनस्पति, पौधे आदि भी दूषित होते है जिसे अगर पशु चारे के रूप में ग्रहण करें तो यह उनके लिये भी विषैले साबित होंगे। यही कारण है कि आजकल गाॅवों में खेतों के आसपास अनेक लुभावने वृक्ष, वनस्पति एवं जीव-जन्तु,प्राणी एवं चिड़ियायें थी आज वे भी लुप्त होने की कगार पर है, इतना ही नहीं गाॅव-गाॅव, शहर-शहर में कौए, मैना, तोता, गुलगुल, तीतर एवं गिद्ध आदि पक्षियों की प्रजाति पूर्व की तरह आकाश में हजारों की सॅख्या में सुबह-शाम आते-जाते अठखेलियाॅ करती नहीं दिखने का कारण भी यही है।   किसान को अब जग जाना चाहिये, सरकार को कठोर नियम बनाकर इन रासायनिक उर्वरकों,कीटनाशकों पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये ताकि भूल कर भी धरती माता को विषकन्या बनाने में जुटे रसायनों-कीटनाशकों से मुक्ति मिल सके। भौतिक, प्राकृतिक और जैविक उपायों को अमल में लाकर पर्यावरण की रक्षा के लिये पूर्वजों की खेती अपनाने पर बढ़ना होगा तभी पर्यावरण संबंधी हमारी परिोजनाए, हानिरहित और व्यावहारिक खेती की ओर बढ़ना होगा जो सबसे लिये हितकर है। महात्मा गाॅधी का जीवन ग्रामों में ग्रामवासियों के बीच निकला है उन्होंने तब हर ग्रामवासी से स्वच्छता के संदेश के साथ गाय-भैस के गोबर, मूत्र के अलावा मानव मल से खेती करने पर जोर दिया जिसे समझना होगा और इस बाबत सरकार को ठोस कदम उठाने के लिये रणनीति तैयार करनी चाहिये।  किसान को भरपूर उपज मिले ताकि वह बाजारवाद की प्रतिस्पर्धा से मुकावला कर सबका हित साध सके। लेकिन किसान को यह सब करने के लिये अपने पूर्वजों के कदमों पर चलना होगा। उसे समझना होगा कि धरती माता जिस प्रकार क्षमाशील है और वह मनुष्य तथा जानवरों के मलमूत्र, हड़डी, माॅस के त्याग तथा अन्य पदार्थो के सड़ने गलने के बाद उसे अपनी कोख में धारण कर उसकी उर्वरा की ताकत को बढ़ाती है। किसान जनसॅख्या की दृष्टि से भूमि की उर्वरा के संरक्षण के लिये प्रचुर मात्रा उपलब्ध इस खाद से उस व्यक्ति की तरह जिसके काॅख में बेटा बैठा है और वह गली में उसे तलाशता है कि कहावत काॅख में लरका,गली में ढ़िढौरा की तरह इस ओर देख नहीं पा रहा है। किसान अपने पूर्वजों द्वारा बैलगाडियों से ट्रालियों से गोबरखाद का इस्तेमाल करने को संकुचित भावना एवं विचार समझता हो तो उसे इससे मुक्त होकर गोबर खाद एवं मनुष्य के मल-मूल खाद का प्रयोग करने में झिझक नहीं होनी चाहिये। मनुष्य के मलमूल में प्रचर मात्रा में खाद होती है जिसे वैज्ञानिकों ने माना है जो अन्न को उपजाने की दुगुनी ताकत रखता है। इंसान के मल-मूल में पर्याप्त मात्रा में नाईट्रोजन,फासफोरस, पोटाश और अन्न उपजाने की शक्ति से पूर्ण माना है और एक करोड़ की आबादी के मल-मूल से 2.27 करोड़ टन नाईट्रोजन होने की बात स्वीकारी है और चीन, जापान तथा इंग्लैण्ड जैसे विकसित देश रासायनिक खाद, कीटनाशकों का प्रयोग छोड़कर मानव मल-मूत्र की खाद का इस्तेमाल करते है जिसमें उन्होंने संकुचित भावना को त्याग दिया है। आश्चर्यजनक एवं चैकाने वाली बात यह भी है कि जिस रासानिक पदार्थ एवं कीटनाशक का भारत में प्रयोग होता है उससे पैदा गेहॅू को विदेशी जहरीला बतलाकर खरीदते तक नहीं है जबकि भारत की जनता को स्टारों के विज्ञापनों द्वारा मुॅहमाॅगे दामों में बेचने का चलन केवल यही है, जो जागरूकता के अभाव एवं जनता की अज्ञानता से ही संभव है।